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” कर्ज -व्याज” तो हनुमान की पूंछ है
‘उसकी’ कचर – कचर बातों से तंग
मै तिलमिला उठता
सुबह -सुबह दिनचर्या
सुना देते – ‘फरमान’
आज चलना है ‘यहाँ’ –
‘वहां’- ‘ये’ करना’-‘वो’ करना
चूर कर देते -मेरे सपने
मेरे अरमान !
हांक देते फिर
दिन भर थका देते
चक्कर लगाता – मै दिन भर
सोचता रहता
कब होगा -‘वो’ कर्ज पूरा
मेरे बाप-दादों का
ये इसका “व्याज” –
हनुमान की पूँछ हो गयी है
आदर करता उसका
मै “भीष्म –प्रतिज्ञा” लिए
“कर्ण” सा डटा था
मुक्त होने को –
धोने को दाग .
अथक परिश्रम –
चरमरायी हड्डी –
घर आता तो -बंध जाता-
“माया –मिठास” में
लोग पानी पिला देते
चारा डाल- ठोंक देते हंथेली से पीठ
शुरू हो जाते फिर –
मुझे गोल-गोल हांक देते-
“गाँव” मेरा ब्रह्माण्ड था
मेरा- मेरे बाप दादा की –
अनमोल दुनिया !
रश्म-रिवाज -प्रथा-सम्मान-
से मै सजा था अन्दर तक
‘अथाह’ ताकत है मुझमे
कभी -कभी भांप लेता-
आँखें बंद कर –
पिजड़े में बंद-शेर सा
गुर्रा उठता -बेबस –
मजबूर-लाचार !
मन तो कहता -पिजड़े को तोड़
“इतिहास” रच दूं –
मुक्त हो जाऊं -” मालिक” से
“बंधन” -“बंधुआ” हालात से
उछाल दूं -पटखनी दूं इनको
चारों खाने चित्त ये
मुझसे सोचें – चक्कर काटे –
उनका दिमाग -“ये”-
पर फिर वही
प्रथा-परंपरा
मेरे -प्यारे बाप -दादा की-
याद आती -मेरी संस्कृति
“मेरा नाम मत डुबाना ”
मै चक्कर काटता –
“कोल्हू ” में
खाने को पा जाता
चबाता- पगुराता
शांत-चलता
चक्कर काटते
ख्यालों में ही
थोड़ा सा सो जाता .
सुरेन्द्रशुक्लाभ्रमर
२४.०२.२०११
जल (पी.बी.)
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