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कोशिश-शुक्लाभ्रमर-कविता-हिंदी पोएम्स-

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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 ” कोशिश “
अन्धकार !
एक किरण फूटी,
‘कोने’ से – एक झरोखे से
‘वो’ -निकला – बढ़ा,
मुस्कराया-
अभिवादन किया
फिर चढ़ने की ‘कोशिश’
आसमान में उड़ने की तमन्ना..
थोडा चढ़ा ..गिरा….
फिर चढ़ा -गिरा..
गिरा-गिरा-गिरा….
फिर गिरा-
हम हँसते -ठहाके लगते रहे
गिरने पर हँसने की आदत है –
हमें  –  बालपन से
गिरने पर – मजा आता है,
लड़खड़ाते बच्चे पर
‘रेस’ लगाते घुड़सवार पर
थिरक-थिरक गिरती कटी – पतंग पर
पत्थर की ‘चोट खाए’ गिरते ‘आम’ पर
‘पतझड़’  में झरझरा- गिरते  पत्तों पर
बारिश की बूंदों पर-
फसलों को चौपट करते ‘ओलों’ पर
सूरज से ‘जेठ’ में गिरते शोलों पर
पहाड़ से गिरते झरनों पर
कुश्ती में चित्त पहलवान पर
विधानसभा-संसद में भड-भडाकर-
गिरती सरकार पर ,
दलाल- स्ट्रीट में गिरते “शेयर” पर
प्याज टमाटर के बढ़ते- गिरते मूल्य पर
पटरी से लुढ़कती- एक के ऊपर एक-
चढ़ते – गिरते ‘रेल’ के डिब्बों पर –
और भी न जाने कितने -किस किस पर
और तभी   ‘वो’   हमारा –
हंसी का पात्र – ‘जोकर’  -“नायक” –
धमधमाते- ऊपर चढ़ा,
सारी ” रौशनी” फोकस उसके ऊपर
छोड़ हाथ- ‘आसमान’ में- ‘जम्प’ –
कलाबाजियां – ‘ये’ मंच वो ‘मंच’
छोड़ता-पकड़ता-उड़ता चला-
हमारी आँखें फटी की फटी
सर उठाये उस ‘जोकर’ को
आसमान में ताकते
सोचते पड़े- -कि
गिरने वाला ही – चढ़ सकता है
बढ़ सकता है –
“एक कोशिश”
रोने से –  मुस्कराहट
अंधकार से उजाले
ज़मी से आसमां तक
फैली है – ‘जो’
सुरेन्द्रशुक्लाभ्रमर
२६.०२.२०११
जल (पी.बी.)
८.१० पूर्वाहन .

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