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खड़ी आईने के संग जाकर

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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प्रिय मित्रों सजने संवरने के दिन आ गये दिवाली गयी तो रोशन कर गयी मन को तन को -अब सब वक्त को निहार लें किस मुकाम पर कौन खड़ा है क्या कौन झाँक रहा दस्तक दे रहा , वक्त के हिसाब से आओ चलें अपनी अपनी कुछ जिम्मेदारियां भी समझें और निभाएं ….आज कुछ अलग सा …..

खड़ी आईने के संग जाकर
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(फोटो साभार गूगल/नेट से )

आँखों की वो छुअन देख के
दौड़ी दौड़ी घर आई
खड़ी आईने के संग जाकर
भर भर कर मै अंग लगायी
लहराई कुछ बल खायी
जुल्फों की बदली से छन छन
नैनों से कटि तक को देखा
देख देख कितना शरमाई
लाल हुआ चेहरा कुछ मेरा
नैन रसीले और कटीले
मद भरे जाम से मस्त पड़ी
खुद के तीर जो सह ना पाई
उनसे शिकवा क्या कर दूं मै
कैसे उनसे पूंछूं जाकर
नैन गडाए क्या देखे वे
जिसको क्षण भर झेल ना पायी
जान गयी पहचान गयी मै
“भ्रमर” है क्यों उड़ उड़ के आता
सुबह शाम घेरे यों रहता
गुन-गुन गुन -गुन मन क्या गुनता
कलि फूल पर hai क्यों मरता
मौसम बदल गया अब जाना
गदरायी डालें हैं माना
बगिया महक गयी फल आये
कोयल कूक कूक कर गाये
पापी पपीहा बोल पड़ा है
पीऊ पीऊ दिल में झनकाये
मोर नाच अब झूम रिझाये
दर्पण क्यों ना सच कह जाए
हुयी सयानी समझ में आये
तुम समझो सब कहा न जाए
जिय की बात हिया रह जाए !!
शुक्ल भ्रमर ५
२.१०.२०११ यच पी

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