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चला भिखारी – जंगल में
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हे बादल तू भर भर कर जल
घूमे ललचाये चढ़ के आकाश
पाया तो धरती सागर से
क्या भूला – अहम भरा मन में ?
है तप्त मरुस्थल धरती ये
बूंदे बरसा हरियाली दे
हे अम्बुद-अम्बुज- सर-सा दे
मन खिल जाए
तो आनंद और आये
पूजा तेरी हो जाए
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इतना धन छाती में भर के
गर्वोन्नत -पर्वत खड़ा हुआ
कुछ नीचे क्षुद्र जीव भी हैं
हैं ताक रहे सिर उठा उठा
या समझा सूखा रूखा मै
तन मिटटी पत्थर भरा हुआ
या गड़ी सम्पदा जल जो है
शीतलता – हरियाली तुझमे
झरना बन थोडा फूट पड़े
तू तृप्त करे जो जले यहाँ
तो आनंद और आये
जो काम किसी के तू आये
गोवर्धन – बन पूजा जाए !
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हम छोड़ रौशनी सभी जगत
सब गिरा कन्दरा हैं आये
अंधियारे जंगल वास करें
कुछ भूख मिटे ये मन चाहे
(फोटो साभार गूगल/नेट से )
देखा चूहों का पेट भरे
कुछ बचा खुचा -चौपाये खाएं
कुछ लूट पाट कर घर भर लें
कुछ सड़े -बचे में आग लगाएं
हम लिए कटोरा जग भटके
ना भरा ये अब रोते -आये
फल वृक्ष लदा जो तू गिरकर
इंसानों की अब भूख मिटाए
तो आनन्द और आये
कल्पवृक्ष बने तू – तरुवर हे !
जन- मानस में पूजा जाए !!
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल ‘भ्रमर “५
१८.११.२०११
७.५०-८.१५ पूर्वाह्न यच पी
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