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अपनी अर्थी अपने काँधे

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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अपनी अर्थी अपने काँधे
——————————
चार दिन की इस यात्रा में मैंने
बहुत से बीज बोये -वृक्ष रोपे
लेकिन कांटेदार
बेर, बबूल, नागफनी , कैक्टस
एक गुलाब भी
रस भी पिलाया मैंने कितनों को
मधुशाला में ले गया
मधु भी पिलाया किसी एक को
शादियाँ कितनी बेटियों की करायी मैंने
सूरदास से , कालिदास से
राजकुवर और गरीबदास से
ईमानदार और सज्जन से -किसी एक की
मैदान-ए-जंग में
कितनो को लड़ाया
-घरों में शाही के कांटे खोंस -खोंस के
लंगोट पहनाया -अखाड़े बनवाया
जिताया- ताज पहनाया किसी एक -कर्मवान को
सब जगह पहुंचा मै हाजिरी लगाया
नोचा खाया
भीड़ में , क्रिया- कर्म में , मुंडन में
उस अकाल में दो कौर मैंने
उसको खिलाया -शीतल जल पिलाया
पालथी लगाया
फिर लम्बी साँसे भर -समाधी लगाया
अपनी अर्थी अपने काँधे पे उठाया –जलाया
श्वेत वसन धर अधनंगा -दाढी मूंछें रखा
एक हांडी उस वृक्ष की डाल पर लटकाया
जमीन पर सोया -आया -जल डाला -गया
आधा पेट खाया -मुंडन करा के
शुद्ध हो गया
सब को खिलाया
लेकिन उन दस दिनों में मैंने
दस जनम देखा- -बहुत रोया -बहुत हँसा
बच्चे सा !!
अपने- सपने –
पाया –
एक गुलाब, मधु और मै , सज्जन-
दो कौर और मेरी आत्मा
मेरे साथ रह गए
मेरे सहचरी
प्यारी
मेरी ईमानदारी …
———————–
शुक्ल भ्रमर ५
२४.११.११-१.२१-१.५१ पूर्वाह्न
यच पी

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