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ईश्वर-१ (कड़ी -2)

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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. ईश्वर-१ (कड़ी -2)

वो ही हन्ता वही नियंता
भू -रज -कण जल में
माया मोह जुगुप्सा इच्छा
काम क्रोध है लोभ सभी के मन में !
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वो चिन्तन है वो अचिन्त्य है
लभ्य वही है वो अलभ्य है
बुद्धि विवेक ज्ञान गुण तर्पण
ब्रह्म नियामक दिव्य तेज है
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निर्गुण सगुण जीव जड़ जंगम
प्रेम सुधा करुना रस घट है
झरना सरिता गिरि कानन है
वो अथाह सागर है
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आदि शक्ति है अन्वेषी सचराचर है
उल्का धूम-केतु ग्रह नक्षत्र है
भक्ति यही वैराग्य यही है
अचल सचल रफ़्तार यही है
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नीति नियम आदर्श मूल्य ये
बड़ा अपरिमिति अगणित रहस्य है
प्राण वायु घट-घट में व्यापित
गति विराम कारक प्रेरक है
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यही अजन्मा ये अमर्त्य है
परे बुद्धि के सब -समर्थ है
मै अज्ञानी मूढ़ सकूं ना सोच तुझे जगदीश्वर
दशों दिशाओं जित देखूं मै ईश्वर ईश्वर !
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मानव हूँ मन ही भरमू बस
ये जीवन तन -मन अर्पण सब
मन मष्तिष्क में ज्योति बना रह
सूक्ष्म जगत या सूक्ष्म मिलाकर !
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दृग जो देखे मन जो सोचे
लख चौरासी योनि भटक जो खोज करे
तुम बिन हे ! प्रभु ईश्वर मेरे
आस्तिक -नास्तिक खोज कहीं कब क्या है पाए
माया मोह के उलझन उलझा घूमे लौटे
पंछी सा उड़ -उड़ जब हारे इसी “नाव” फिर आये
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
27.4.2012 kullu H P 6.00-7.00 A M

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