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कुंठित मन

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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कुंठित मन
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वंजर धरती को जोते हम
डाल उर्वरक हरा बनाये
सालों साल वृथा मिटटी जो
आज हँसे लहके लहराए !
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कुंठित मन को कुंठा से भर
दुखी रहें क्यों हम अलसाये
कुंठित बीज हरी धरती में
कुंठित फसल भी ना ला पायें !
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नाश करें खुद के संग धरती
वंजर वृथा ह्रदय अकुलाये
जोश उर्जा क्षीण हो निशि दिन
ख़ुशी हंसी मन को खा जाए !
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सहज सरल भी चुभें तीर सा
बिन बात बतंगड़ बनती जाए
घुन ज्यों अंतर करे खोखला
दिखता कुछ होता कुछ जाए !
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हरे वृक्ष बन ठूंठ सडे कुछ
क्या जीवन , क्यों जीवन पाए ?
आओ तम से उबरें, भरें उजास –
ऊर्जा ! कूदें उछलें नाचें गायें !
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हो आनंदित मन जब अपना
हो साकार तभी सब सपना
साधें लक्ष्य एकलव्य बन
अर्जुन भीष्म सा करें चित्त हम !
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कुरुक्षेत्र हो या लंका रण
लिए सीख मन मन्त्र बढ़ें हम !
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जित जाएँ उत राह बनायें
खुद तो चलें सभी बढ़ पायें
मिले हाथ से हाथ कदम तो
हो जय घोष विजयश्री आये !
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल ‘ भ्रमर ५’
प्रतापगढ़ उ प्र
(कुल्लू हिमाचल )
रचना -बरेली -मुरादाबाद मार्ग
३.-३. ४ ५ लौह पथ गामिनी में
२७ .० ७ -२ ० १ ३

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