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होंठों पर यूं -हंसी खिली हो

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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आओ देखें कविता अपनी
रंग-बिरंगी -सजी हुयी -है
कितनी प्यारी –
मुझको -तुमको लगता ऐसे …

जैसे भ्रमर की कोई
कली खिली हो
भर पराग से उमड़ पड़ी हो
तितली के संग –
खेल रही हो मन का खेल !!

चातक की चंदा
निकली हो आज –
पूर्णिमा-धवल चांदनी
धीरे -धीरे आसमान में
सरक रही हो
पास में आती
मोह रही हो सब का मन !!

बिजली ज्यों बादल का दामन
छू-आलिंगन कर
चमक पड़ी हो
“बादल” खुश हो –
गरज पड़ा हो
बरस पड़ा हो
“मोर”- सुहावन
देख नजारा-“ये” –
मनभावन
नाच पड़ा हो
लूट लिया हो सब का मन !!

फटे -पुराने कपडे पाए
“वो”-अनाथ ज्यों
झूम पड़ा हो
चूम लिया हो
हहर उठा हो उसका मन !!!

रोटी के संग –
गुड़ पाए ज्यों -एक भिखारी
भूखा-प्यासा
तृप्त हुआ हो
होंठों पर यूं -हंसी खिली हो
धन्यवाद देता -जाये- मन !!!

भ्रष्टाचारी मूर्ख बनाये
जनता को ज्यों
“वोट” बटोरे
सिंहासन -आसीन हुआ हो
लूट लिया हो
वो “कुबेर’ बन –
स्वर्ग गया हो
भूल गया हो –
अहं भरा ‘तांडव’ करता हो
देख “अप्सरा”-
फूल गया हो उसका मन !!

तपे “जेठ”-जब सूखा झेले
मुरझाये “वो” -कहीं पड़ा हो
खेत -बाग़-वन !!
उमड़ -घुमड़ ज्यों देखे बदरा
लोट-लोट जाये -किसान ‘मन’ !!

कवि कोई ज्यों ‘सुवरन ‘देखे
खिंचा चला हो >>
अंग-अंग को उसके देखे
उलट पलट के -जाँच रहा हो
चूम रहा – सौ बार !!

दुल्हन जैसे खड़ी हुयी हो
नयी नवेली – बनी पहेली
कर सोलह श्रृंगार !!
करे – अलंकृत –
“गजरा” लाये – फूल सजाये
रंग लगाए
सराबोर हो –
भंग का जैसे नशा चढ़ा हो
हँसता जाए –
कविता – देखे
बौराया हो ‘फागुन” में मन !!!

सुरेन्द्रशुक्लाभ्रमर५
१०.३.२०११ जल पी बी

दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

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