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‘लोरी’ गा के मुझे सुलाना (माँ की व्यथा )

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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‘लोरी’ गा के मुझे सुलाना
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माँ बूढी पथरायी आँखें
जोह रही हैं बाट
लाल हमारे कब आयेंगे
धुंध पड़ी अब आँख
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जब उंगली पकड़ाये चलती
कही कभी थी बात
मै आज सहारा दे सिखलाती
जब बूढी तुम थामना हाथ
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सूरज मेरा पढ़ा लिखा था
संस्कृति अपनी था सीखा
मात पिता के थे सारे गुण
प्रेम, कर्म से भरा जोशीला
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घर में रोटी दाल सभी थी
मै ही थी पगलाई
जो विदेश खेती गिरवी रख
लाल को मै भिजवायी
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बहुत कमाया प्य्रार जताया
अभी और पढता हूँ माँ
कल जब पढ़ लिख पक्का हूँगा
तुझको ले आऊंगा माँ
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तब तो चिट्ठी आ जाती थी
हँस -रो के मै खा लेती थी
अब रो-रो ही खाती जीती
जितने दिन हैं सांसे चलती
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‘बुरी नजर’या हुआ विदेशी
कौन कला पश्चिम की भायी
सौ गुण युक्त ये सोने चिड़िया
काहे उसको रास न आयी
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बापू तेरे जर्जर हो गए
ठठरी पंजरी पड़ गये खाट
कुछ दिन चल फिर मै कर लूँगी
आँख अँधेरा कल क्या राम !
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रामचन्द्र का तो ‘चौदह’ था
तेरा कितना हे ! वनवास
क्रोध गुरेज नहीं है मन में
‘नजर’ भरूं ‘आ’ देखूँ आस
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दिल ये हहर-हहर कर टीसे
जब आते हैं उनके लाल
होली-दीवाली फागुन रंग
हम दो के सपनों की बात
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अपना देश भी किया तरक्की
घडी घडी अब होती बात
क्यों भूला सब माँ ममता रे !
भूले-विसरे कर ले बात
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मेरे दिल का दर्द प्रेम क्या
तेरे दिल को ना तड़पाता
‘खून’ मेरा क्या तेरे खून से
जुदा हुआ सब तोड़े नाता
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मर गयी या संवेदना तेरी
तू ‘मशीन’ अब यूरोप का
प्रेम प्यार रिश्ते-नातों की
मातृ-भूमि ना मया-दया
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‘आ’ बेटा आ अन्त समय ही
मेरी उंगली थाम दिखाना
मुँह में गंगा जल थोड़ा सा
‘लोरी’ गा के मुझे सुलाना
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल ‘भ्रमर ५ ‘
करतारपुर , जालंधर
पंजाब
१५-०२ -२०१४
४-४. ३५ मध्याह्न

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