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कटी-पतंग

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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कटी-पतंग
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सतरंगी वो चूनर पहने
दूर बड़ी है
इतराती बलखाती इत-उत
घूम रही है उड़ती -फिरती
हवा का रुख देखे हो जाती
कितनों का मन हर के फिरती
‘डोर’ हमारे हाथ अभी है
मेरा इशारा ही काफी है
नाच रही है नचा रही है
सब को देखो छका रही है
प्रेम बहुत है मुझे तो उससे
जान भी जोखिम डाले फिरता
दूर देश में इत उत मै भी
नाले नदियां पर्वत घाटी
जुडी रही है बिन भय के वो
मुड़ी नहीं है, अब तक तो वो
कितनी ये मजबूत ‘डोर’ है
कच्चा बंधन, पक्का बंधन
चाहत कितनी प्रेम है कितना
कौन संजोये मन से कितना
कितनी इसे अजीज मिली है
खुश -सुख बांधे ‘डोर’ मिली है
कुदरत ने बहुमूल्य रचा है
‘दिल’ को अभी अमूल्य रखा है
डर लगता है कट ना जाये
या छल बल से काटी जाए
कहीं सितारों पे ललचाये
‘आकर्षण’ ना खींचती जाए
‘प्रेम’ का नाजुक बंधन होता
टूटे ना ‘गठ-बंधन’ होता
होती गाँठ तो लहराती है
हाथ न अपने फिर आती है
कटी-पतंग बड़ी ही घातक
लुटी-लुटाई जाती घायल
हाथ कभी तो आ जाती है
कभी ‘डोर’ ही रह जाती है
यादों का दामन बस थामे
मन कुढ़ता, ना लगे नयी में
जाने नयी भी कैसी होगी
कैसी ‘डोर’ उड़े वो कैसी ??
विधि-विधान ना जाने कोई
क्या पतंग क्या डोर – हो कोई
रचना अद्भुत खेल है पल का
नहीं ठिकाना अगले कल का ..
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
६.००-६.३० पूर्वाह्न
४.३.२०१४
करतारपुर जालंधर पंजाब

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