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कौन हो तुम प्रेयसी ?

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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(फोटो गूगल नेट से साभार )

कौन हो तुम प्रेयसी ?
कल्पना, ख़ुशी या गम
सोचता हूँ मुस्काता हूँ,
हँसता हूँ, गाता हूँ ,
गुनगुनाता हूँ
मन के ‘पर’ लग जाते हैं
घुंघराली जुल्फें
चाँद सा चेहरा
कंटीले कजरारे नैन
झील सी आँखों के प्रहरी-
देवदार, सुगन्धित काया
मेनका-कामिनी,
गज गामिनी
मयूरी सावन की घटा
सुनहरी छटा
इंद्रधनुष , कंचन काया
चित चोर ?
अप्सरा , बदली, बिजली
गर्जना, वर्जना
या कुछ और ?
निशा का गहन अन्धकार
या स्वर्णिम भोर ?
कमल के पत्तों पर ओस
आंसू, ख्वाबों की परी सी ..
छूने जाऊं तो
सब बिखर जाता है
मृग तृष्णा सा !
वेदना विरह भीगी पलकें
चातक की चन्दा
ज्वार- भाटा
स्वाति नक्षत्र
मुंह खोले सीपी सा
मोती की आस
तन्हाई पास
उलझ जाता हूँ -भंवर में
भवसागर में
पतवार पाने को !
जिंदगी की प्यास
मजबूर किये रहती है
जीने को …
पीने को ..हलाहल
मृग -मरीचिका सा
भरमाया फिरता हूँ
दिन में तारे नजर आते हैं
बदहवाश अधखुली आँखें
बंद जुबान -निढाल –
सो जाता हूँ -खो जाता हूँ
दादी की परी कथाओं में
गुल-गुलशन-बहार में
खिलती कलियाँ लहराते फूल
दिल मोह लेते हैं
उस ‘फूल’ में
मेरा मन रम जाता है
छूने बढ़ता हूँ
और सपना टूट जाता है
——————————–

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
७-७.२० मध्याह्न
२३.०२.२०१४
करतारपुर , जालंधर , पंजाब

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