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परख PARAKH

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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हर दाने नहीं हों खाने को ,हर आंसू न व्याधि बंटाने को,
पहचाने सभी को-जाने को , हर वार हो कश्ती डुबाने को !

हर दांत न होते खाने को , जुगनू न लगाये आग कभी ,
हर हाथ न उठते देने को , धुन यूं न बसायें बाग़ कभी !

तलवार भी क्या जब धार नहीं , वह आग नहीं जब आंच नहीं ,
वह माँ क्या जिसमे प्यार नहीं , संतान बुरी- तब बाँझ भली !!

सब देखे ना ही सच होता ,रश्मि आये ना हाथ कभी,
घर आये सभी मेहमान न होता, ऊँगली पकडे ले बांह कभी !!

मोम छुएं तो कठोर लगे , हिम भी बन जाता पानी है ,
चोर न देखे चोर लगे , प्रिय भी बन जाता पापी है !!

हर उल्का ना सब नाश करे , चपला न दिखाए राह सदा ,
वह ममता ना बस प्यार करे, अबला न बनाये भाग्य सदा !!

सरसों से दिखते तारे भी, नजदीक नहीं हैं पहाड़ सभी ,
महलों में बसे ही सितारे नहीं, संगीत नहीं लय -ताल नहीं !!

तीखी भी औषधि होती है -विष दन्त नहीं हों सांप सभी,
विष की औषधि विष होती है ,भ्रमर सभी लो भांप भली !!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
१५.०४.२०११

(लेखन -२५.०२.१९९४ कोडरमा झारखण्ड)

दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

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