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खाना खाना। अम्मी खाना दे न ! चिड़चिड़ाता काँपता बच्चा अब चीखने लगा था — महीनों से दौड़ी भागी थकी हारी माँ का सपना टूट चुका था -छोटा बच्चा रोये जा रहा था। गर्म बदन तेज चलती साँसे नींद उड़ा रही थी काले बादल छंटते से दिख रहे थे। भोर का उजाला कुछ कुछ आस बंधा रहा था किरण आएगी तो कुछ न कुछ तो जीवन मिलेगा ही , गोद में सिर रखे बच्चे को थपकी देती विमला ढांढस बंधाती जीवन दान देती जा रही थी। माँ जो है न !
अपनी बपौती खुले आसमान , पेड़ के नीचे दो पीढ़ी से तो यहीं जमी थी , सास ससुर पति यहीं — इसी जगह से अलविदा —
तभी विजली चमकी तेज बूँदें -एक पोटली – भीगता कम्बल — मुन्ने को लिए वो रेन बसेरा की तरफ भागी —
हालत बदलेंगे , कालोनी बनेगी , अपने सिर पर छत होगी , लाखों कैमरे होंगे अपनी गरीबी देखेंगे , कम्प्यूटर पर खाना होगा , पकवान , दवाई —
ठोकर लगी , गिरी विमला उठी , …रैन बसेरे में भीड़ , कोई पाँव फैला चुका था —
पैर एक कोने घसीट , भीगा कम्बल मुन्ने को ओढाती वो फफक फफक रो पड़ी , बस दो दिनों में वोटों की
गिनती —
अम्मी दो दिन में तो मै भूखा मर —–
चुप कर — उसके होंठ उँगलियों से बंद करती विमला सिसक पड़ी —
बस दो दिन और जी ले मेरे मुन्ने —
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
6. २ ० -6 . 3 8 पूर्वाहन
रविवार ८/२/२०१५
कुल्लू हिमाचल प्रदेश भारत
दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं
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