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माँ लोट रही-चीखें क्रंदन बस यहां वहां
एक जोर बड़ी आवाज हुयी
जैसे विमान बादल गरजा
आया चक्कर मष्तिष्क उलझन
घुमरी-चक्कर जैसे वचपन
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अब प्राण घिरे लगता संकट
पग भाग चले इत उत झटपट
कुछ ईंट गिरी गिरते पत्थर
कुछ भवन धूल उड़ता चंदन
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माटी से माटी मिलने को
आतुर सबको झकझोर दिया
कुछ गले मिले कुछ रोते जो
साँसे-दिल जैसे दफन किया
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चीखें क्रंदन बस यहां वहां
फटती छाती बस रक्त बहा
कहीं शिशु नहीं माँ लोट रही
कहीं माँ का आँचल -आस गयी
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कोई फोड़े चूड़ी पति नहीं
पति विलख रहा है ‘जान’ नहीं
भाई -भगिनी कुछ बिछड़ गए
रिश्ते -नाते सब बिखर गए
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सहमा मन अंतर काँप गया
अनहोनी बस मन भांप गया
भूकम्प है धरती काँप गयी
कुछ ‘पाप’ बढ़ा ये आंच लगी
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सुख भौतिक कुदरत लील गयी
धन-निर्धन सारी टीस गयी
साँसे अटकी मन में विचलन
क्या तेरा मेरा , बस पल दो क्षण
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अब एक दूजे में खोये सब
मरहम घावों पे लगाते हैं
ये जीवन क्षण भंगुर है सच
बस ‘ईश’ खीझ चिल्लाते हैं
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उधर हिमाचल से हिम कुछ
आंसू जैसे ले वेग बढ़ा
कुछ ‘वीर’ शहादत ज्यों आतुर
छाती में अपनी भींच लिया
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क्या अच्छा बुरा ये होता क्यूँ
है अजब पहेली दुनिया विभ्रम
जो बूझे रस ले -ले समाधि
खो सूक्ष्म जगत -परमात्म मिलन
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कुदरत के आंसू बरस पड़े
तृषित हृदय सहलाने को
पर जख्म नमक ज्यों छिड़क उठे
बस त्राहि-त्राहि कर जाने को
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ऐसा मंजर बस धूल-पंक
धड़कन दिल-सिर पर चढ़ी चले
बौराया मन है पंगु तंत्र
हे शिव शक्ति बस नाम जपें
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इस घोर आपदा सब उलटा
विपदा पर विपदा बढ़ी चले
उखड़ी साँसे जल-जला चला
हिम जाने क्यों है हृदय धधकता
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आओ जोड़ें सब हाथ प्रभू
तत्तपर हों हर दुःख हरने को
मानवता की खातिर ‘मानव’
जुट जा इतिहास को रचने को
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हे पशुपति नाथ हे पंचमुखी
क्यों कहर चले बरपाने को
हे दया-सिंधु सब शरण तेरी
क्यों उग्र है क्रूर कहाने को
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
२.३०-३.०२ मध्याह्न
कुल्लू हिमाचल
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