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आओ माँ मै पुनः चिढाऊं

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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आओ माँ मै पुनः चिढाऊं
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मन कहता मै पुनः शिशु बन
माँ के आँचल खेलूँ
कल्पवृक्ष सम माँ ममता संग
गोदी खेले प्रेम का सागर पी लूँ
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मुझे निहारे मुझे दुलारे
तुतला गाये शिशु बन जाए
हो आनंदित हर सुख पाये
माँ को मेरी ‘आँच ‘ न आये
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मुझमे माँ का प्राण बसा है
माँ के प्राण मै वास करूँ
मेरे दुःख से दुखी वो होती
धन्य जननि शत नमन करूँ
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जननी माँ तू जग कल्याणी
शक्ति प्रेम सब में भरती
गुरु माँ तू आलोकित करती
‘पीड़ा’ तम जग की हरती
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कभी खिलाने कभी खोजने
पीछे पीछे मेरे भागी
रुष्ट हुआ वीमार हुआ तो
रात-रात सोची जागी
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क्षुधा हमारी पीड़ा मेरी
जादू जैसे मुझसे पहले तू जाने
भूखी रह तू तृप्त है करती
दुर्गा काली नीलकंठ तू जग जाने
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कभी घटुरुवन कभी खड़ा मै
गिर-गिर उठता सम्हल गया
याद तुम्हारी ऊँगली की माँ
थामे बढ़ा पहाड़ चढ़ा
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शत शत नमन करूँ हे माता
मेरी उम्र तुम्हे लग जाए
करुणा निधान वारें हर खुशियाँ
लेश मात्र दुःख छू ना पाये
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दुःख सुख में माँ ही मुख निकले
‘लोरी’ जीवन झंकृत करती
नहीं ‘उऋण’ माँ जग कुछ कर ले
‘जीवन’ दान जो तू जग करती
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कर-कमलों को सिर पर मेरे
रख देना -देना आशीष
‘सूरज’ चंदा जो ये तेरे
करें उजाला -माँ के साथ
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तेरी ममता का बखान मै
लिखता लिखता तक जाता
सृजती रूप धरे माँ नवधा
रोता-जाता माँ माँ केवल लिख पाता
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रोम-रोम हर कण माँ मेरे
रूप धरे- प्रभु वास करे
सात्विक गन संस्कार ये मेरे
‘नौका’ बन भव पार करे
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सीख मिली जो बचपन माता
गुण गाता ना कभी अघाता
जनम -जनम मै शिशु तू माता
पुनः मिले ये करें विधाता
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दे आशीष सदा दिल तेरे
टुकड़ा-दिल बन रह जाऊं
उऋण भले ना माँ मै तुझसे
‘प्रेम’ तेरा तुझ संग मै बांटूँ
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आओ माँ मै पुनः चिढाऊं
डाँट मार कुछ खाऊं
कान पकड़ फिर ‘राह ‘ मै पाऊँ
ना भटकूँ आँचल छाँव में सो जाऊं
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
मातृ दिवस पर
८-८.२० मध्याह्न १०-मई -२०१५
कुल्लू हिमाचल प्रदेश भारत

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