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भोर की वेला में जब कल
हम अजनवी दो मिले
दूरियां सिमटी नहीं पर
नैन भर प्याले पिए !
इतनी सारी प्यारी बातें
मन ने जी भर भर किये
वादियाँ गुमसुम खड़ी थीं
शान्त शीतल व्यास थी
पुष्प अगणित खिल उठे थे
खींच नजरों को रहे थे
पर न जाने नैन भँवरे
नैन में क्यों खो गए थे ?
व्यास नदिया का उफनता शोर
फिर कानों में बोला जोर –जोर
चल पड़ो गतिशील बन हे छोड़ के कोमल कठोर
ना रुको हो भ्रमित प्रेमी -है नहीं कुछ ओर छोर
पाँव तेरे बढ़ रहे थे धड़कनें मेरी बढ़ीं
धड़कनें तेरी थी कैसे प्रश्न ले के थीं खड़ी
पक्षियों ने गीत गाया मधुरता से
मन को फिर भटका दिया
मिलना बिछड़ना रीति कल की
सब त्वरित समझा दिया
प्यासे बादल मिल गले से
दूर जाने क्यूँ बढे ?
ठाँव मंजिल हर जगह ना
अपनी मंजिल बढ़ चले
अपनी मन्जिल से मिलेंगे
हर्ष-आंसू छल-छलाके
खो के इक दूजे में दिल भर
हंस सकेंगे रो सकेंगे
गिले शिकवे कह सकेंगे
ताप सारे हर सकेंगे
खो के एक दूजे में प्रियतम
‘शून्य’ हम फिर हो -चलेंगे !
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
विश्वकर्मा पूजा
१७-९-२०१५ -५.१५ -६ पूर्वाह्न
कुल्लू हिमाचल
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