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खिली खिली खिलखिला उठूँ मैं
जब से उसने मुझको देखा …
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कोमल गात हमारे सिहरन
छुई मुई सा होता तन मन
उन नयनों की भाषा उलझन
उचटी नींदें निशि दिन चिंतन
मूँदूँ नैना चित उस चितवन ….
खुद बतियाती गाती हूँ मैं ….
खिली खिली खिलखिला उठूँ मैं
जब से उसने मुझको देखा …
होंठ रसीले मधु छलकाते
अमृत घट ज्यों -भौंरे आते
ग्रीवा-गिरि-कटि-नाभि उतर के
बूँद-सरोवर-झील नहाते
मस्त मदन रति क्रीड़ा देखे ……..
छक मदिरा पी लड़खड़ा उठूँ मैं………
खिली खिली खिलखिला उठूँ मैं
जब से उसने मुझको देखा …
काया कंचन चाँद सा मुखड़ा
प्रेम सरोवर हंस वो उजला
अठखेली कर मोती चुगता
लहर लहर बुनता दिल सुनता
बात बनी रे ! रात पूर्णिमा …
ज्वार सरीखी चढ़ जाऊं मैं …
खिली खिली खिलखिला उठूँ मैं
जब से उसने मुझको देखा …
लहर लहर लहरा जाऊं मैं
भटकी-खोती-पा जाऊं मैं
चूम-चूम उड़ छा जाऊं मैं
बदली-कितनी-शरमाऊं मैं
बांह पसारे आलिंगन कर …
दर्पण देख लजा जाऊं मैं …
खिली खिली खिलखिला उठूँ मैं
जब से उसने मुझको देखा …
अब पराग रस छलक उठा है
पोर-पोर हर महक उठा है
कस्तूरी मृग जान चुका है
दस्तक दिल पहचान चुका है
नैनों की भाषा पढ़ पढ़ के …
जी भर अब मुस्काऊँ मैं
खिली खिली खिलखिला उठूँ मैं
जब से उसने मुझको देखा …
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
११.३० -१२.१० मध्याह्न
२.६.२०१६
कुल्लू हिमाचल भारत
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